महाद्वीपों की वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में स्थलमंडलीय विभ्रंश एक आधारभूत प्रक्रिया है और विभ्रंश के कारण बने बेसिनों के भीतर संचित वैश्विक हाइड्रोकार्बन भंडारों के कारण इनका सामाजिक महत्व काफी अधिक है। स्थल मंडल में दरार आने तक संचय पर विस्तारित प्रतिबल के अनुप्रयोग और तनाव के स्थानीकरण के परिणामस्वरूप विभ्रंश होता है, जिसके बाद समुद्रतल फैल जाता है और समुद्री स्थलमंडल में अधिकांश विस्तार आ जाता है। अत: महाद्वीपीय-विघटन में दो मूलभूत भू-वैज्ञानिक प्रक्रियाएं यथा विरूपण और मैग्माकरण नाटकीय रूप से शामिल होती है। फिर भी दरार से बहाव के क्रम में प्रत्येक प्रक्रिया के बारे में बेहतरीन प्रश्न मौजूद हैं। हमें तनाव की प्रमात्रा और कारण जिनसे विभ्रंश होता है जो कि वे विरूपण प्रकियाएं है जिनके द्वारा महाद्वीपीय स्थलमंडल इन तनावों पर प्रतिक्रिया करता है और उन प्रमुख मानदंडों जो इस विरूपण को नियंत्रित करते हैं, के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं है। इसी प्रकार से तनाव के स्थानीकरण और एस्थेनोस्फीयर से स्थलमंडल में ताप अभिवहन में दरार संबंधी मैग्मा की भूमिका तथा विस्तारण के दौरान मैंटल के पिघलने पर नियंत्रण (जैसे मैंटल का तापमान, ज्वलनशीलता की मात्रा और कम पैमाने पर संवहन) के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। इन प्रक्रियाओं को समझना आज पृथ्वी वैज्ञानिकों के आधारभूत लक्ष्यों में से एक लक्ष्य है।
यह परियोजना का लक्ष्य इस सीमा-क्षेत्र में तटीय-अपतटीय संरचनाओं में संबंध में विशेष बल देते हुए एसडब्ल्यूआईएम (स्विम) का विस्तृत अध्ययन करना है। स्थलमंडलीय पैमाने पर पूर्व विभ्रंश (रिफ्टिंग) का उत्कृष्ट प्रेक्षण विभ्रंश हुए महाद्वीपीय किनारों पर भूकंपीय अध्ययनों से किया जा सकता है। महाद्वीपीय फूटन के विस्तृत अध्ययन के लिए भूपृष्ठ और ऊपरी मैंटल की वेग और प्रतिबाधा संरचना के उच्च गुणवत्ता वाले चित्रों की आवश्यकता होती है। विस्तृत परावर्तन/अपवर्तन भूकंपीय जानकारियों से प्राप्त इन चित्रों द्वारा विरूपण और भूपृष्ठ के पतले होने, भूपृष्ठीय संरचना, अवतलन इतिहास, मैग्मा के जमा होने और समुद्र अधस्थता के फैलाव के पैटर्न के बारे में अनिवार्य जानकारी मिलती है।
ज्वालामुखी से विभ्रंश हुए किनारों पर सामान्य एस्थेनोस्फीयर के निष्क्रिय विसंपीडन गलत की तुलना में अत्याधिक सक्रिय विभ्रंश ज्वालामुखीयता होती है। भूकंपीय रिकार्डों में इनकी पहचान सामान्यता समुद्रमुखी–नत-परावर्तकों (एसडीआर) के वेज़ों द्वारा भी की जाती है। इन वेजों जिनकी मोटाई 6 किमी से अधिक होती है, में अत्यधिक लावा-प्रवाह और अंतरास्तरित अवसाद होता है। अकसर बहिर्वेधी क्षेत्र में कई कि मी तक उच्च भूकंपीय वेग (7$+कि मी/से) का आधार होता है जो कि माना जाता है कि टूटने की घटनाओं के दौरान भूपृष्ठ के आधार से जुड़ गया है। विश्व के 70 प्रतिशत से अधिक विभ्रंश किनारों पर एसडीआर पाए जाते हैं। ये किनारे सामान्य हैं। जैसे व्हाइट एंड मैकेंजी, 1989; एल्डोल्म इत्यादि, 200) फिर भी हमें उनके विकास, विशेषकर निस्सारी मैग्माकरण के बारे में विस्तार से बताने हेतु आवश्यक तापीय/ गतिज मॉडलों को स्थलमंडलीय विरूपण के बारे में जानकारी देने वाले यांत्रिक मॉडलों के साथ जोड़ने के संबंध में समग्र जानकारी नहीं है।
भारतीय महाद्वीपीय किनारों पर दशकों तक ऐसे प्रेक्षण करने पर सीमित उप-सतही डेटा कवरेज के आधार पर कई परिकल्पनाएं सामने आई हैं लेकिन भारतीय महाद्वीपीय किनारों के भूकंपीय अध्ययनों से आज तक जटिलताओं का समग्र समाधान नहीं किया गया है। ऐसा मुख्यत: किनारों पर उच्च गुणवत्ता वाले भूकंपीय अनुप्रस्थों का न होना है। हाल के वर्षों में विभिन्न एजेंसियों द्वारा विभिन्न प्रयोजनों हेतु भारी मात्रा में भूकंपीय डेटा एकत्र किया गया है। इस जानकारी से प्रेरित होकर डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ हाइड्रोकार्बन्स (डीजीएच), भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए एमसीएस डेटा का विश्लेषण और व्याख्या करने के लिए एनसीएओआर, गोवा में एक प्रायोगिक परियोजना शुरू की गई। इस परियोजना का परिणाम (नायर इत्यादि, 2010) वैज्ञानिक समुदाय के समक्ष रखा गया जो कि दीर्घकालिक कार्यक्रम का आधार निर्मित करती है। इस परियोजना में इस विभ्रंश किनारे की सूक्ष्म प्रकृति (जैसे इसमें मैग्मा की मात्रा कम है या अधिक है) की जांच करने और इस क्षेत्र में महाद्वीप–महासागर संक्रमण (सीओटी) के सीमांकन के बारे में कोई जानकारी प्रदान करने हेतु एसडब्ल्यू भारतीय किनारे पर उच्च रिजोलुशन (विभेदन), गहन वेधन भूकंपीय परावर्तन/अपवर्तन डेटा सेट का प्रावधान है। यही नहीं, गहन डीएसएस अध्ययनों द्वारा किए गए तटीय अध्ययनों के साथ अपतटीय व्याख्याएं जोड़ी जाएंगी।
ख) प्रतिभागी संस्थाएं :
राष्ट्रीय भूकंप केन्द्र विज्ञान, नोएडा
राष्ट्रीय अंटाकर्टिक और समुद्री अनुसंधान केन्द्र, गोवा
ग) कार्यान्वयन योजना :
इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन के पहले कदम के रूप में यह प्रस्तावित है कि दक्षिण प्रायद्वीपीय भारत में उडीपी-कवाली भूकंपीय अनुप्रस्थ के माध्यम से पूर्व-पश्चिम कॉरीडोर पर अध्ययन किया जाए और इसे लक्षद्वीप समूहों से पृथक अरब सागर बेसिन से जोड़ना है। अरब सागर अपतट तथा उडीपी-कवाली गहरी-अनुप्रस्थ जो कि समग्र दक्षिण प्रायद्वीप पर फैली है, से प्राप्त उच्च गुणवत्तायुक्त मल्टीचैनल भूकंपीय प्रतिबिम्बन, गुरूत्वाकर्षण और चुंबकीय डेटा इसे अध्ययन हेतु आदर्श कॉरीडोर बनाता है। इसके साथ-साथ दो गहरे समुद्र में स्थित वेधन स्थलों (डीएसडीपी 219 और 221) से प्राप्त भूवैज्ञानिक जानकारी, भू-भौतिक डेटा को नियंत्रित करती है। प्रारंभिक परिणामों के आधार पर, यह प्रस्तावित है कि डब्ल्यूसीएमआई के महत्वपूर्ण भागों पर उच्च रिजोलुशन (विभेदन) एमसीएस और अपवर्तन डेटा भी एकत्र किया जाए।
घ) वितरण योग्य :
आशा की जाती है कि प्रस्तावित कार्य से देश में भू-वैज्ञानिक अनुसंधान के नए क्षेत्र खुलेंगे। नए डेटा और नई प्रौद्योगिकियों के प्रयोग से यह प्रत्याशा की जाती है कि इस परियोजना से तटवर्ती और अपतटीय और उप-सतही संरचनाओं के संबंध के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होगी। यह कार्यक्रम भारतीय पृथ्वी वैज्ञानिकों को विभ्रंश शिल्प और इसके भू-गतिज प्रभाव को निकटता से जानने का अवसर मिलेगा।
ङ) बजट की आवश्यकता : 13 करोड़ रुपए
(करोड़ रु)
योजना का नाम | 2012-13 | 2013-14 | 2014-15 | 2015-16 | 2016-17 | कुल |
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गहरा भूपर्पटीय अध्ययन | 5.00 | 4.00 | 2.00 | 1.00 | 1.00 | 13.00 |